लेखक एक सेवक
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क्या कहूं दुखी अंतर्मन है ,जैसे खुशियों से अनबन है ।
जिसने सीखा चलना मुझसे, उस लाल से मेरी अनबन है ।।
मै कहाँ मांगता रात और दिन
बस पास बैठ मेरे पल छिन,
क्या जिन्दा हो मेरे बाबू जी
बस यही पूछ ले तू हर दिन ,
कुछ दिन से न आया देखन है ।।
मैं देख रहा उसका बचपन
कैसे जागे उन बातों को ,
कहता है परेशां हूँ तुमसे
सोने क्यूँ न देते रातों को ,
क्या यही सिला ये बंधन है ।।
आया वो सुबह ही कमरे में
और कहा चलो बाबूजी ऒ,
मैंने सोचा मैं धन्य हुआ
देखा बदले जो तेवर को ,
पर तभी राज कुछ और खुला
कुछ दूर ले जाके उसने कहा ,
अब यहीं रहो वृधाश्रम है ।।
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