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“कहाँ बचपन”

लेखक एक सेवक
लेखक एक सेवक
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कूड़े के ढेर पर नंगे पैर, चल रहा मगर फिर भी बचपन।
गंदे ये हाथ पर मन तो साफ, जल रहा मगर फिर भी बचपन ।।
छोटा ये पेट रोटी को देख
मन की दीवारों से टकराए,
पैसे से भूख न पैसा भूख
हाथों में झोला पकडाए ,
आंखे ढूंढे कोई अपनापन ।
बेटा कहता दिल में रहता
बालों में हाथ फिराता कोई,
कोई नहलाता लोरी गाता
सीने से मुझे चिपकाता कोई,
यही सोच रहा छोटा सा मन

मां याद नहीं कोई साथ नहीं
अब तो जीना ही है मकसद,
लातें घूसे थप्पड़ पूछे
ये चलते फिरते कीड़े सब,
मिटटी से लगे इनका चन्दन  ।
मैं पूछता हूँ दुनिया वालों, क्यूँ छीन रहे इनका बचपन  ।
ये ढूंढे ही लेंगे खुद ब खुद , बस ये बतला दो कहाँ बचपन ।।

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